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Wednesday, May 30, 2012

Raag Megh-Malhaar




A sudden torrential innerburst, mind numbing
And tearful in extent. What is it? Where in 
Natures bountiful mysteries does this figure?
Overflowing inner joy but by no means peaceful,
Like a matrimony of Ghalib's pain with the joys
Of the rain!

A welcome yet unsure change between hazy days of
Self yielding grey. What mist, what silence, what
Rhythm brings about this cataclysm of overwhelming
Heaviness in the throat, skipped beats in the heart
And a rush of ecstacy in my blood? A sense of such
Seductive anticipation..

A timeless time on the clocks that remains unseen
Just so the soul can enjoy these fleeting yet strong
Lapses of unhindered selfless freedom. Inward collages
Of crashing waterfalls, stubborn rivers, golden fields
Of wheat and green valleys of flowers. The focus of a
Tiger and the suspense of a deer. Oh what is it?

This resonanting tune of the flute, the naughty string
Games of a sitar, the push of the tabla beats and the
Binding sorrow of the piano- the outburst in the inner!
Then, when I open my eyes, harness my senses ready to 
Plunge in the senseless mediocrity does my mind answer-
It's the raag Megh-Malhaar!

© Malyaban Lahiri

Tuesday, November 22, 2011

मकसद


क्यों  गए  थे  हम  पाक  हाजी  अली  साहब  के  दरगाह  पर ?
क्या  दी  थी  चुनौती  भगवन  ने  जो  हम  वैष्णो  देवी  चल  परे ?
जलता  रहा  यह  गुलिस्तान  हमारा  मगर  हम  कौमी  काफिले  में  चल  परे । 
भुना  गया  हिन्दू , मुस्लमान , सिख  हमारी  अंधापन  के  तंदूर  में 

क्या  आया  था  भगवन , अल्लाह  या  इसा  इन  जिस्मो  में  जान  बटोरने ?
किताबों  में  लिखा  है  के  देखता  है  वोह , सब्र  करता  है 
और  फिर  दुष्टों  का  विनाश । लेकिन  यहाँ  विनाश  तो  इंसानियत 
का  हो  रहा  है । कोई  नक्सल  है  तो  कोई  कोम्मुनिस्ट , कोई  दे  या 
तो  कोई  बाय । इनमे  इंसान  है  क्या  कोई  जो  लाशों  का  सत्कार  कर  आय ?

सच्चाई  का  बलात्कार  होता  रहा  हमारे  नज़रों  के  सामने ,
चीन  गई  बचपन  और  जवानी  तख्तों  पर  गिरी  और  कटीली 
बहूँ  में  समा  गयी । सोच  की  चिंगारी  और  इंसान  का  इन्क़ुएलब 
निगल  गए  उन  दरिंदों  ने । कुछ  धोतियाँ  और  कुछ  किताबें  हस्ती  रहीं ।

गणतंत्र  का  यह  रावण  जो  कभी  राम  बन्ने  चला  था , आज  किस  दुविधा 
में  परा  है ? दायें  जाय  या  बाएं , या  तो  फिर  नाक्सलो  के  जंगल  में ? 
नहीं  तो  कश्मीर  के  लहू  लिहां  वादियाँ  इंतज़ार  में  है  और  है  उत्तर 
पूर्व  के  जंगल । यहाँ  कौन  राजा  तख़्त  पर  बैठा  है ?

कौन  रजा ?? जो  साला  अपने  जंग  लगे  घुटनों  के  बल  उठता  ही  नहीं ? तलवार ,
कटIर , किरपान , बन्दुक  अन्याय  के  खिलाफ  धरता  ही  नहीं ? कहते  हैं  
बुद्धिजीवी  के  इतना  आसान  नहीं  यह  सब  करना , गन्दगी  पोछना  और  उन  लोम्रियो 
को  मिटाना । अरे  अगर  बुद्धि  होती  तो  तुम  जीते  नहीं , जीना  सिखाते ।

कमीनों, उट्ठो , जागो ! देखो  किस  कश्म्स्कश  में  हमारी  मुक्ति  परी  है ।
सुनो  कैसी  हमारी  आवाज़  गूंगी  बनी  है  और  महसूस  करो  उन  दो  करोर 
डरावनी  सपनों  को , जो  अपनों  को  बहार  जाने  से  रोकती  है । भ्रष्टाचार ? 
राजनीती ? विवेक  तले  पैसों  का  लें  दें ? यह  तो  सदियों  पुराणी  रोग  हैं ।

इनका  इलाज  भी  बरी  ठोस  है । कोई  खद्दर  वाले  नेता  नहीं , कोई  आदर्श  वाले 
वहशी  नहीं , कोई  दल  नहीं , कोई  प्रार्थी  नहीं । आदर्शहीनता  को  चुनो । आदर्श  
खुद  एक  चुनोती  है  जो  हमें  किसी  एक  सोच  का  ग़ुलाम  बनाती  है । बल्कि  एक 
मकसद । एक  मकसद , एक  ही  मौका  और  एक  करार  जवाब । 

अगर  बनाना  ही  है  तो  ऐसा  दल  बनाओ , ऐसा  जन  समूह  जो  ऐसे  बहे  जैसे 
हिमालय  का  बर्फ  तुम्हारी  भावनाओ  से  गलकर  एक  प्रचंड  और  खूंखार  सागर 
बन  गया  हो । ऐसे  बहो  के  कुर्सी , गद्दी , स्वार्थ  और  भय  नेस्तोनाबूद  हो  जाय ।
बस  रहे  तो  सिर्फ  इतना  ही , हमारी  आत्माओं  की  मुक्ति , बुद्धि  की  जय  और  महत्वाकांक्षा 
की  ऊर्जा । 

अगर  कोई  फिर  कहे  तुमसे  के  ज़रुरत  है  एक  झंडे  की , एक  कुर्सी  की  और  किसी 
दल  की । तब  जवाब  देना - के  दो  करोर  मुक्त  आत्माएं   मेरा  झंडा  है , महत्वाकांक्षा 
का  शिखर  मेरी  कुर्सी  और  हमारी  बुध्धि  मेरा  दल । ऐसा  ही  दिन  का  इंतज़ार  है  मुझे ।.
एय  वतन  परस्तों , अब  जाओ ... दल  बनाओ , झंडा  गाड़ो और  नारे  लगाओ । लेकिन  दल  ऐसा 
हो  जो  फिर  कभी  किसी  दल  का  अत्याचार  न  सहे । 

धर्म  के  नाम  पर  दरिंदगी  को  मिटे  और  भूक  से  तरपते  करोरों  को  खिले  और  नंगो 
को  कपडा  दे । तब  मैं  शामिल  हूँगा  तुम्हारे  काफिलों   में  जब  तुम  कहो , यह  दल  नहीं ,
झंडा  नहीं , एक  आवाज़  है । जो  सिर्फ  चिल्लाना  ही  नहीं  करना  भी  जानता  है ! मुस्सोलीनी  को  काटना जानता  है , हिटलर  को  जलाना  जानता  है  और  डायर को  मारना  जानता  है । इन  सब  को  जला  दो , मिटा  दो  इनके  निशाँ ! समाज  को  सामाजिक  बनाओ  और  आदम  को  इंसान । येही  होगा  हमारा  हिन्दोस्तान !
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