Tuesday, November 22, 2011

मकसद


क्यों  गए  थे  हम  पाक  हाजी  अली  साहब  के  दरगाह  पर ?
क्या  दी  थी  चुनौती  भगवन  ने  जो  हम  वैष्णो  देवी  चल  परे ?
जलता  रहा  यह  गुलिस्तान  हमारा  मगर  हम  कौमी  काफिले  में  चल  परे । 
भुना  गया  हिन्दू , मुस्लमान , सिख  हमारी  अंधापन  के  तंदूर  में 

क्या  आया  था  भगवन , अल्लाह  या  इसा  इन  जिस्मो  में  जान  बटोरने ?
किताबों  में  लिखा  है  के  देखता  है  वोह , सब्र  करता  है 
और  फिर  दुष्टों  का  विनाश । लेकिन  यहाँ  विनाश  तो  इंसानियत 
का  हो  रहा  है । कोई  नक्सल  है  तो  कोई  कोम्मुनिस्ट , कोई  दे  या 
तो  कोई  बाय । इनमे  इंसान  है  क्या  कोई  जो  लाशों  का  सत्कार  कर  आय ?

सच्चाई  का  बलात्कार  होता  रहा  हमारे  नज़रों  के  सामने ,
चीन  गई  बचपन  और  जवानी  तख्तों  पर  गिरी  और  कटीली 
बहूँ  में  समा  गयी । सोच  की  चिंगारी  और  इंसान  का  इन्क़ुएलब 
निगल  गए  उन  दरिंदों  ने । कुछ  धोतियाँ  और  कुछ  किताबें  हस्ती  रहीं ।

गणतंत्र  का  यह  रावण  जो  कभी  राम  बन्ने  चला  था , आज  किस  दुविधा 
में  परा  है ? दायें  जाय  या  बाएं , या  तो  फिर  नाक्सलो  के  जंगल  में ? 
नहीं  तो  कश्मीर  के  लहू  लिहां  वादियाँ  इंतज़ार  में  है  और  है  उत्तर 
पूर्व  के  जंगल । यहाँ  कौन  राजा  तख़्त  पर  बैठा  है ?

कौन  रजा ?? जो  साला  अपने  जंग  लगे  घुटनों  के  बल  उठता  ही  नहीं ? तलवार ,
कटIर , किरपान , बन्दुक  अन्याय  के  खिलाफ  धरता  ही  नहीं ? कहते  हैं  
बुद्धिजीवी  के  इतना  आसान  नहीं  यह  सब  करना , गन्दगी  पोछना  और  उन  लोम्रियो 
को  मिटाना । अरे  अगर  बुद्धि  होती  तो  तुम  जीते  नहीं , जीना  सिखाते ।

कमीनों, उट्ठो , जागो ! देखो  किस  कश्म्स्कश  में  हमारी  मुक्ति  परी  है ।
सुनो  कैसी  हमारी  आवाज़  गूंगी  बनी  है  और  महसूस  करो  उन  दो  करोर 
डरावनी  सपनों  को , जो  अपनों  को  बहार  जाने  से  रोकती  है । भ्रष्टाचार ? 
राजनीती ? विवेक  तले  पैसों  का  लें  दें ? यह  तो  सदियों  पुराणी  रोग  हैं ।

इनका  इलाज  भी  बरी  ठोस  है । कोई  खद्दर  वाले  नेता  नहीं , कोई  आदर्श  वाले 
वहशी  नहीं , कोई  दल  नहीं , कोई  प्रार्थी  नहीं । आदर्शहीनता  को  चुनो । आदर्श  
खुद  एक  चुनोती  है  जो  हमें  किसी  एक  सोच  का  ग़ुलाम  बनाती  है । बल्कि  एक 
मकसद । एक  मकसद , एक  ही  मौका  और  एक  करार  जवाब । 

अगर  बनाना  ही  है  तो  ऐसा  दल  बनाओ , ऐसा  जन  समूह  जो  ऐसे  बहे  जैसे 
हिमालय  का  बर्फ  तुम्हारी  भावनाओ  से  गलकर  एक  प्रचंड  और  खूंखार  सागर 
बन  गया  हो । ऐसे  बहो  के  कुर्सी , गद्दी , स्वार्थ  और  भय  नेस्तोनाबूद  हो  जाय ।
बस  रहे  तो  सिर्फ  इतना  ही , हमारी  आत्माओं  की  मुक्ति , बुद्धि  की  जय  और  महत्वाकांक्षा 
की  ऊर्जा । 

अगर  कोई  फिर  कहे  तुमसे  के  ज़रुरत  है  एक  झंडे  की , एक  कुर्सी  की  और  किसी 
दल  की । तब  जवाब  देना - के  दो  करोर  मुक्त  आत्माएं   मेरा  झंडा  है , महत्वाकांक्षा 
का  शिखर  मेरी  कुर्सी  और  हमारी  बुध्धि  मेरा  दल । ऐसा  ही  दिन  का  इंतज़ार  है  मुझे ।.
एय  वतन  परस्तों , अब  जाओ ... दल  बनाओ , झंडा  गाड़ो और  नारे  लगाओ । लेकिन  दल  ऐसा 
हो  जो  फिर  कभी  किसी  दल  का  अत्याचार  न  सहे । 

धर्म  के  नाम  पर  दरिंदगी  को  मिटे  और  भूक  से  तरपते  करोरों  को  खिले  और  नंगो 
को  कपडा  दे । तब  मैं  शामिल  हूँगा  तुम्हारे  काफिलों   में  जब  तुम  कहो , यह  दल  नहीं ,
झंडा  नहीं , एक  आवाज़  है । जो  सिर्फ  चिल्लाना  ही  नहीं  करना  भी  जानता  है ! मुस्सोलीनी  को  काटना जानता  है , हिटलर  को  जलाना  जानता  है  और  डायर को  मारना  जानता  है । इन  सब  को  जला  दो , मिटा  दो  इनके  निशाँ ! समाज  को  सामाजिक  बनाओ  और  आदम  को  इंसान । येही  होगा  हमारा  हिन्दोस्तान !
 ©

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