क्यों गए थे हम पाक हाजी अली साहब के दरगाह पर ?
क्या दी थी चुनौती भगवन ने जो हम वैष्णो देवी चल परे ?
जलता रहा यह गुलिस्तान हमारा मगर हम कौमी काफिले में चल परे ।
भुना गया हिन्दू , मुस्लमान , सिख हमारी अंधापन के तंदूर में
क्या आया था भगवन , अल्लाह या इसा इन जिस्मो में जान बटोरने ?
किताबों में लिखा है के देखता है वोह , सब्र करता है
और फिर दुष्टों का विनाश । लेकिन यहाँ विनाश तो इंसानियत
का हो रहा है । कोई नक्सल है तो कोई कोम्मुनिस्ट , कोई दे या
तो कोई बाय । इनमे इंसान है क्या कोई जो लाशों का सत्कार कर आय ?
सच्चाई का बलात्कार होता रहा हमारे नज़रों के सामने ,
चीन गई बचपन और जवानी तख्तों पर गिरी और कटीली
बहूँ में समा गयी । सोच की चिंगारी और इंसान का इन्क़ुएलब
निगल गए उन दरिंदों ने । कुछ धोतियाँ और कुछ किताबें हस्ती रहीं ।
गणतंत्र का यह रावण जो कभी राम बन्ने चला था , आज किस दुविधा
में परा है ? दायें जाय या बाएं , या तो फिर नाक्सलो के जंगल में ?
नहीं तो कश्मीर के लहू लिहां वादियाँ इंतज़ार में है और है उत्तर
पूर्व के जंगल । यहाँ कौन राजा तख़्त पर बैठा है ?
कौन रजा ?? जो साला अपने जंग लगे घुटनों के बल उठता ही नहीं ? तलवार ,
कटIर , किरपान , बन्दुक अन्याय के खिलाफ धरता ही नहीं ? कहते हैं
बुद्धिजीवी के इतना आसान नहीं यह सब करना , गन्दगी पोछना और उन लोम्रियो
को मिटाना । अरे अगर बुद्धि होती तो तुम जीते नहीं , जीना सिखाते ।
कमीनों, उट्ठो , जागो ! देखो किस कश्म्स्कश में हमारी मुक्ति परी है ।
सुनो कैसी हमारी आवाज़ गूंगी बनी है और महसूस करो उन दो करोर
डरावनी सपनों को , जो अपनों को बहार जाने से रोकती है । भ्रष्टाचार ?
राजनीती ? विवेक तले पैसों का लें दें ? यह तो सदियों पुराणी रोग हैं ।
इनका इलाज भी बरी ठोस है । कोई खद्दर वाले नेता नहीं , कोई आदर्श वाले
वहशी नहीं , कोई दल नहीं , कोई प्रार्थी नहीं । आदर्शहीनता को चुनो । आदर्श
खुद एक चुनोती है जो हमें किसी एक सोच का ग़ुलाम बनाती है । बल्कि एक
मकसद । एक मकसद , एक ही मौका और एक करार जवाब ।
अगर बनाना ही है तो ऐसा दल बनाओ , ऐसा जन समूह जो ऐसे बहे जैसे
हिमालय का बर्फ तुम्हारी भावनाओ से गलकर एक प्रचंड और खूंखार सागर
बन गया हो । ऐसे बहो के कुर्सी , गद्दी , स्वार्थ और भय नेस्तोनाबूद हो जाय ।
बस रहे तो सिर्फ इतना ही , हमारी आत्माओं की मुक्ति , बुद्धि की जय और महत्वाकांक्षा
की ऊर्जा ।
अगर कोई फिर कहे तुमसे के ज़रुरत है एक झंडे की , एक कुर्सी की और किसी
दल की । तब जवाब देना - के दो करोर मुक्त आत्माएं मेरा झंडा है , महत्वाकांक्षा
का शिखर मेरी कुर्सी और हमारी बुध्धि मेरा दल । ऐसा ही दिन का इंतज़ार है मुझे ।.
एय वतन परस्तों , अब जाओ ... दल बनाओ , झंडा गाड़ो और नारे लगाओ । लेकिन दल ऐसा
हो जो फिर कभी किसी दल का अत्याचार न सहे ।
धर्म के नाम पर दरिंदगी को मिटे और भूक से तरपते करोरों को खिले और नंगो
को कपडा दे । तब मैं शामिल हूँगा तुम्हारे काफिलों में जब तुम कहो , यह दल नहीं ,
झंडा नहीं , एक आवाज़ है । जो सिर्फ चिल्लाना ही नहीं करना भी जानता है ! मुस्सोलीनी को काटना जानता है , हिटलर को जलाना जानता है और डायर को मारना जानता है । इन सब को जला दो , मिटा दो इनके निशाँ ! समाज को सामाजिक बनाओ और आदम को इंसान । येही होगा हमारा हिन्दोस्तान !
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